राम भक्ति

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम | maryada purushottam ram

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम | maryada purushottam ram | Ram Bhakti Lyrics

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम

मर्यादा शब्द के भिन्न अर्थ है: १) सीमा, २) प्रतिज्ञा, ३) सदाचार, ४) धर्म, ५) नियम, ६) गौरव

श्री राम ने सदा ‘मर्यादा’ का पालन किया, वे ‘मर्यादा’ मे रहे और इसी से वे मर्यादित पुरुषों मे उत्तम “मर्यादा पुरुषोत्तम” राम कहलाए।

“श्री राम” एक राजकुमार थे और गुरुकुल मे अन्य सभी शिष्यों की भाँति ही उन्होने गुरुकुल के नियमों का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण की। उन्होनें अपने राजकुमार होने का लाभ नही लिया और न ही किन्ही विषेश सेवाओं अथवा सम्मान की अभिलाषा की। गुरुकुल की मर्यादा को बनाए रखा।

गुरु वशिष्ठ के अनुरोध पर श्री राम ऋषि विश्वामित्र जी के साथ ऋषि-मुनियों के तप मे राक्षसों द्वारा पड़ते विघ्न को रोकने के लिए अल्पायु में ही निकल पडे। “श्री राम” गुरुकुल का कठिन जीवन बिताने के पश्चात अपने राज-ग्रह मे थे जहाँ उन्हे सभी संसारिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं। वे राजा दशरथ से आग्रह कर सेना को ऋषि विश्वामित्र के साथ भेज सकते थे और स्वयं राजमहल मे रहते हुए सुख भोग सकते थे। परन्तु उन्होने ऋषि-मुनियों की रक्षा को राज-धर्म मानते हुए अपने व्यक्तिगत सुखों की तुलना मे अधिक महत्त्व दिया और राज-धर्म की मर्यादा को नही छोड़ा।

यह राजा का दायित्त्व है कि ऋषि-मुनि भी राज्य की अन्य प्रजा की भाँति सुरक्षित जीवन व्यतीत कर सके, उन्हे कोई कष्ट न हो जिससे वे भी समाज के प्रति अपने दायित्त्व, अपने धर्म को निभा सके। सेना को भेज कर भी राक्षसों से ऋषि-मुनियों की रक्षा की जा सकती थी परन्तु एक राजकुमार जो संभवत: उस राज्य का राजा बनेगा वह गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता है? जब प्रजा का एक वर्ग कष्ट मे हो तो वह सुखी कैसे रह सकता है? प्रजा के प्रति राजा का समर्पण, राज-परिवार का समर्पण उनकी मर्यादा है, प्रजा की अपेक्षा है और यह समर्पण ही राजा को व उसके परिवार को प्रजा मे स्वीकार्य व लोक-प्रिय बनाता है।

राजा दशरथ के ऋषि विश्वामित्र से यह कहने पर कि वे उनके साथ सेना भेज देते है श्री राम ने पिता की आज्ञा पिता के कथन से असमर्थन व्यक्त किया और उन्हें राजा की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं पूर्ण दायित्त्व से राज-धर्म का पालन किया। यहाँ हमे एक सीख और मिलती है कि परिवार से ऊपर और चाहे वह परिवार राज-परिवार ही क्यों न हो, राज्य है, राज-धर्म है।

(हिन्दुओं मे संसारिक जीवन के लिए राज्य सर्वोपरि है। विदुर नीति मे भी कहा है:-

त्यजेत कुलार्थे पुरूषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत ।

ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत ॥

(कुल को बचाने के लिए यदि किसी व्यक्ति का त्याग करना पडे तो कर दो। ग्राम को बचाने के लिए यदि परिवार का, कुल का त्याग करना पडे तो कर दो। राज्य को बचाने के लिए यदि ग्राम का त्याग आवश्यक हो जावे तो ग्राम की आहुति उचित है। पर आत्म-उन्नति के लिए यदि राज्य क्या पृथ्वी का भी त्याग करना पडे तो कर देना चाहिए अर्थात मृत्यु भी स्वीकार कर लेनी चाहिए परन्तु अपने कर्त्तव्य से कभी भी विमुख नही होना चाहिए ताकि आत्मा का पतन न हो।)

माता सीता के स्वयंवर मे आमंत्रित राजाओं से धनुष नही टूट पाया और श्री राम ने सरलता से धनुष तोड दिया। धनुष तोडने के बाद भी श्री राम ने घमंड नही दिखाया। वे सदाचारी, शिष्ट, निर्मल, सौम्य रहे। एक राजकुमार ने भरी सभा मे वह कर दिया था जो कोई अन्य नही कर पाया था। वह राजकुमार उस प्रतियोगिता मे सबसे श्रेष्ठ था पर उसने अपनी श्रेष्ठता नही दर्शाई, मर्यादा का उल्लंघन नही किया। अपने कर्म से अपनी श्रेष्ठता व्यक्त करने वाले राजकुमार ने शब्दों की मर्यादा कभी भी भंग नही की।

माता कैकेयी ने राजा दशरथ से २ वरदान माँगे थे:

१. युवराज राम के स्थान पर पुत्र भरत को राजा बनाया जाए और

२. युवराज राम को राज्य के बाहिर १४ वर्षों के लिए वन मे वास करना हो

किसी सामन्य जन के साथ यदि ऐसा हो तो उसके मन मे अपने माता-पिता के प्रति कितनी घृणा, कितना द्वेष भार जावे। तनिक सोचें कि ऐसे व्यक्ति की मनोस्थिति कैसी होगी? आज हम एक छोटी सी हानि होने पर विचलित हो जाते है। कुछ लोग तो आत्महत्या तक कर लेते है। श्री राम माता कैकेयी के पिता से माँगे वरदानों को स्वीकार करते है और पुत्र-धर्म का पालन करते है। वे माता-पिता के वचनों की मर्यादा रखते हुए कहते है कि वन मे एकांत मे उन्हे ऋषि-मुनियों से ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिलेगा जिससे उनकी आत्म-उन्नति होगी। श्री राम आत्म-उन्नति की तुलना मे संसारिक साम्राज्य को त्यागना ही उचित पाते हैं।

प्रजा को, एक राजा चाहिए जिसका चुनाव योग्यता के आधार पर, राजा, मंत्री-गण, गुरु-गण करते है और भरत के रुप मे राजा का चयन सही है अथवा नही इसका निर्णय श्री राम राजा दशरथ, मंत्री-गण, गुरु-गण पर छोडते हैं। वे इन सबकी योग्यता का सम्मान करते है और अपनी सीमाएँ नही लाँघने की मर्यादा दिखाते है। श्री राम अपने अनुज भरत को अपने ही समान राजा बनने योग्य समझते है और किसी भी प्रकार से अपने अनुज को तुच्छ, छोटा, अयोग्य दर्शाने का प्रयास नही करते हैं।

एक क्षण मे ही इन संसारिक उपल्ब्धियों के खो जाने से जो कदाचित व्यथित न हो, समाज की दृष्टि मे अपने साथ अन्याय करने वाले माता-पिता से जो वैर न करे, द्वेष न करे अपितु उनके वचनों की मर्यादा की रक्षा करे, वह मर्यादा पुरुषोत्तम है। वह जो अपने साथ प्रजा-शक्ति होते हुए भी, शक्ति का संतुलन अपनी ओर होते हुए भी अपने स्वार्थ के लिए विद्रोह न करे अपितु राज्य की, राज-धर्म की मर्यादा का ध्यान रखे, वह मर्यादा पुरुष है। वह जो वनवास जाते समय अयोध्यावासियों से आग्रह करे कि वे भरत के प्रति भी वही व्यवहार रखें जैसा कि वे उसके प्रति रखते थे, नगरवासी व समस्त प्रजा भरत और उनमे कोई अंतर न करें और भरत को भी वही प्रेम व सम्मान देवें, वह पुरुषोत्तम है। वह जो वनवास के अंतराल में वनवास के कठिन नियमों की मर्यादा रखें और कदाचित अपने राज-परिवार का होने का लाभ न उठावे, वह जो सदैव उचित-अनुचित की मर्यादा रखे, वह जो प्रत्येक जीव-जंतु की योग्यता को गौरवान्वित करे, वही महापुरुष, मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम है।

हम न भूलें कि

  • श्री राम जो कहते थे वह करते भी थे। उनकी कथनी व करनी मे अंतर नही था। यदि आप राम भक्त है तो जैसा कहते है वैसा ही करें। आपकी भी करनी व कथनी मे कोई अंतर नही होना चाहिए। ऐसा होना ही आपके कर्म और आत्म-चेतना का समन्वय होगा।
  • श्री राम का जीवन नैतिकता व मर्यादा से जीवन को सौंदर्यपूर्ण बनाने की कला से अवगत करता है।
  • हमारे जीवन में इच्छाएं, धन व पुण्य सभी का महत्त्व है। श्री राम जी का चरित्र हमे बताता है की हम सदा यह आत्मनिरीक्षण करें कि कहीं इन तीनों की उपलब्धि के लिए हम सही व उचित कर्तव्य, उत्तरदायित्व व हित की उपेक्षा न कर दें जो हमें शाश्वत सुख से वंचित कर दे।
  • श्री राम बाली का सहयोग ले कर रावण का नाश कर सकते थे और सीता माता को वापिस ला सकते थे पर उन्होने अपनी कार्य-सिद्धि के लिए एक अधर्मी का सहयोग नही लिया अपितु उसका वध किया। (देखें: हम न भूलें -07)
  • सुग्रीव और रावण को मारने के बाद भी श्री राम ने उनके राज्य या धन-संपदा से कुछ नहीं लिया, उस पर अपना अधिकार नही जताया। उन्होंने बाली व विभीषण को योग्य आँक (धर्मानुसार शासन करने वाले) उन्हें ही राजा नियुक्त करना सही व उचित माना।
  • श्री राम जी का जीवन कार्य-सिद्धि व आत्म-उन्नति के लिए मानवीय प्रयासों को दर्शाता है जो सफलता प्राप्त करवाते हैं। भाग्य से अवसर मिल सकता है, सफलता नही (कर्म के बिना गति (उद्धार)नहीं है)
  • एक सामान्य मनुष्य के लिए कठिन प्रतीत होने वाली घडी मे भी, जब ऐसा लगे कि सब कुछ नष्ट हो रहा है श्री राम हमे सिखाते हैं कि अपनी आत्म-उन्नति का मार्ग कभी भी समाप्त नही होता।
  • श्री राम का पूरा जीवन हमारे लिए एक आदर्श है और उनके जीवन से हम बहुत सीख सकते हैं। उनके चरित्र में वे सभी गुण हैं जिनकी आकांक्षा संभवत: प्रत्येक व्यक्ति करता है पर मर्यादा पुरुषोत्तम वह अपने सभी नैतिक दायित्वों को पूरा करने पर ही हो सकता है।
  • दर्शन शब्द के अर्थों में १) देखना, २) भेंट, ३) साक्षात्कार अर्थों के अतिरिक्त एक अर्थ “वह शास्त्र, जिसमें तत्व-ज्ञान हो” (अंग्रेजी में फिलॉसफी) भी है। “श्री राम-दर्शन” वास्तव में उनके जीवन का अवलोकन करना व उससे तत्व-ज्ञान अर्जन करना है न कि उनकी मूर्ति अथवा तस्वीर को देखना और उसकी भव्यता की प्रशंसा करना।

maryada purushottam ram

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