वैभव लक्ष्मी व्रत कथा और आरती
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Vaibhav Lakshmi Vrat katha: हिंदू धर्म में पूजा-पाठ और तीज-त्योहारों का विशेष महत्व है. शायद की ऐसा कोई दिन गुजरता होगा, जब कोई खास पूजा का संयोग न बनता हो. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, हर व्रत और अनुष्ठान का अपना अलग महत्व है. सप्ताह के हर दिन के अनुसार व्रत-उपवास करने का विधान है. इसी तरह से शुक्रवार को देवी लक्ष्मी का व्रत रखा जाता है. इसे ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ भी कहते हैं.
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इस व्रत कोई भी कर सकता है. मान्यता के अनुसार, ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ को करने से जीवन में धन और सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है. इस व्रत को रखने से घर-परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत बनी रहती है. इस दिन पूजा में देवी लक्ष्मी को सफेद फूल, सफेद चंदन आदि अर्पित किया जाता है और खीर का भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करते हैं. व्रत के दौरान उपासक को एक समय भोजन करना चाहिए. माना जाता है कि इस दिन माता वैभव लक्ष्मी का व्रत करने के साथ ही लक्ष्मी श्री यंत्र को स्थापित कर उसकी नियमित रूप से पूजा करने से व्यक्ति के व्यापार में वृद्धि ओर धन में बढोतरी होती है.
वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा:
कथा के अनुसार, एक समय की बात है किसी शहर में कई लोग रहते थे. सभी अपने कामों में व्यस्त रहते थे. किसी को किसी से कोई मतलब नहीं था. भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, दया-माया, परोपकार जैसे संस्कारों का अभाव हो चुका था. शहर में बुराइयां बढ़ गई थीं. शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी-डकैती आदि बहुत से गुनाह शहर में होने लगे थे. बावजूद इसके उस शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे.
इनमें शीला नामक स्त्री जो धार्मिक प्रकृति और संतोष स्वभाव वाली थी. उनका पति भी विवेकी और सुशील था. शीला और उसका पति कभी किसी की बुराई नहीं करते थे और भगवान का भजन करने में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे. शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे.
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देखते ही देखते समय बदल गया. शीला के पति की अच्छी संगति बुरी में बदल गई. अब वह जल्द से जल्द करोड़पति बनने के ख्वाब देखने लगा. इसलिए वह गलत रास्ते पर चल पड़ा और फलस्वरूप उसकी हालात भिखारी जैसी हो गई. शराब, जुआ, रेस, चरस-गांजा आदि बुरी आदतों में शीला का पति भी फंस गया. दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत लग गई. इस प्रकार उसने अपना सब कुछ जुए में गंवा दिया.
शीला इस बात से बेहद चिंतित रहने लगी, लेकिन उसे भगवान पर भरोसा था. वह अपना अधिकांश समय प्रभु भक्ति में बिताने लगी. अचानक एक दिन दोपहर को उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी. शीला ने द्वार खोला तो देखा कि एक मांजी खड़ी थी. उसके चेहरे पर अलौकिक तेज दिखाई दे रहा था. उनकी आंखों में से मानो अमृत बह रहा था. उसका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से छलक रहा था. उसको देखते ही शीला के मन को शांति महसूस हुई और उसके रोम-रोम आनंदमयी हो उठा. शीला उस मांजी को आदर के साथ घर ले आई. घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था. अतः शीला ने एक फटी हुई चादर पर उसको बिठाया.
मांजी बोलीं- क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय मैं भी वहां आती हूं.’ इसके बावजूद शीला कुछ समझ नहीं पा रही थी. फिर मांजी बोलीं- ‘तुम बहुत दिनों से मंदिर नहीं आई, इसलिए मैं तुम्हें देखने चली आई.’
मांजी के प्रेमभरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल गया. उसकी आंखों में आंसू आ गए और वह बिलख-बिलखकर रोने लगी. मांजी ने कहा- ‘बेटी! सुख और दुःख तो धूप और छांव जैसे होते हैं. धैर्य रखो बेटी! मुझे तेरी सारी परेशानी बता.’मांजी के व्यवहार से शीला को काफी संबल मिला और सुख की आस में उसने मांजी को अपनी सारी कहानी कह सुनाई. मांजी के व्यवहार से शीला को काफी सुकून मिला और उसने मांजी को अपनी सारी कहानी सुनाई.
शीला के पूछने पर मांजी ने उसे व्रत की सारी विधि भी बताई. मांजी ने कहा- ‘बेटी! मां लक्ष्मीजी का व्रत बहुत सरल है. उसे ‘वरदलक्ष्मी व्रत’ या ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ कहा जाता है. ये व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है. वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है.’ शीला ये सुनकर आनंदित हो गई. शीला ने संकल्प करके आंखें खोली तो सामने कोई न था. वह सोच में पड़ गई कि मांजी कहां गईं? शीला को तत्काल ये समझते देर न लगी कि मांजी और कोई नहीं साक्षात् लक्ष्मीजी ही थीं.
दूसरे दिन शुक्रवार था. सुबह स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर शीला ने मांजी द्वारा बताई विधि से पूरे मन से व्रत किया. आखिरी में प्रसाद वितरण हुआ. ये प्रसाद पहले पति को खिलाया. प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया. उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं. शीला को बहुत आनंद हुआ. उनके मन में ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ के लिए श्रद्धा बढ़ गई.
शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से 21 शुक्रवार तक ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ किया. 21वें शुक्रवार को मांजी के कहे मुताबिक उद्यापन विधि कर के सात स्त्रियों को ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की सात पुस्तकें उपहार में दीं. फिर माताजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगीं- ‘हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण किया है. हे मां! मेरी हर विपत्ति दूर करो. हमारा सबका कल्याण करो. जिसे संतान न हो, उसे संतान देना. सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना. कुंआरी लड़की को मनभावन पति देना. जो आपका ये चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उनकी सब विपत्ति दूर करना. सभी को सुखी करना. हे मां! आपकी महिमा अपार है.’ ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छबि को प्रणाम किया.
व्रत के प्रभाव से शीला का पति अच्छा आदमी बन गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा. उसने तुरंत शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए. घर में धन की वृद्धि हुई. घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई. ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियां भी विधिपूर्वक ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ करने लगीं.
वैभव लक्ष्मी व्रत’ उद्यापन विधि:
सात, ग्यारह या इक्कीस, जितने भी शुक्रवारों की मन्नत मांगी हो, उतने शुक्रवार तक ये व्रत पूरी श्रद्धा तथा भावना के साथ करना चाहिए. आखिरी शुक्रवार को इसका शास्त्रीय विधि के अनुसार उद्यापन करना चाहिए.
आखिरी शुक्रवार को प्रसाद के लिए खीर बनानी चाहिए. जिस प्रकार हर शुक्रवार को हम पूजन करते हैं, वैसे ही करना चाहिए. पूजन के बाद मां के सामने एक श्रीफल फोड़ें फिर कम से कम सात कुंआरी कन्याओं या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगाकर मां वैभवलक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक की एक-एक प्रति उपहार में दें और खीर का प्रसाद दें. इसके बाद मां लक्ष्मीजी को श्रद्धा सहित प्रणाम करें.
फिर मां के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करें- ‘हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण किया है. हे माँ! हमारी (जो मनोकामना हो वह बोले) मनोकामना पूर्ण करें. हमारी हर विपत्ति दूर करो. हमारा सबका कल्याण करो. जिसे संतान न हो, उसे संतान देना. सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना. कुँआरी लड़की को मनभावन पति देना. जो आपका ये चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उनकी सब विपत्ति दूर करना. सभी को सुखी करना. हे माँ! आपकी महिमा अपार है.’ आपकी जय हो! ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छवि को प्रणाम करें.